सर-ए-अफ़्लाक बिछा चाहती है
अब मिरी ख़ाक हवा चाहती है
मैं कहाँ चाहता हूँ सन्नाटा
मेरे अंदर की फ़ज़ा चाहती है
मेरी आवाज़ तो इक क़तरा है
ख़ामुशी सैल-ए-नवा चाहती है
मैं कि भरने में लगा हूँ ख़ुद को
और ग़ज़ल मुझ में ख़ला चाहती है
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फ़सील-ए-शब पे तारों ने लिखा क्या
मेरी कोशिश तो यही है कि ये मा'सूम रहे
अज़ल से बंद दरवाज़ा खुला तो
रोज़ ये ख़्वाब डराता हैं मुझे
हवा के साथ यारी हो गई है
हाथ पर हाथ रख के क्यूँ बैठूँ
तन्हा होता हूँ तो मर जाता हूँ मैं
रफ़्ता रफ़्ता क़ुबूल होंगे उसे
लफ़्ज़ की क़ैद-ओ-रिहाई का हुनर
रोज़ ये ख़्वाब डराता है मुझे
रात भर बर्फ़ गिरती रही है