में अदम की पनाह-गाह में हूँ
छू भी सकती नहीं हयात मुझे
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ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
अज़ल से बंद दरवाज़ा खुला तो
बला का हब्स था पर नींद टूटती ही न थी
फ़क़त ज़ंजीर बदली जा रही थी
न हम-सफ़र है न हम-नवा है
मैं तो किसी जुलूस में गया नहीं
कई सम्तों में रस्ता बट रहा है
हाथ पर हाथ रख के क्यूँ बैठूँ
ज़रा लौ चराग़ की कम करो मिरा दुख है फिर से उतार पर
हमारे दरमियाँ जो उठ रही थी
कौन तहलील हुआ है मुझ में