आज़ाद तो बरसों से हैं अरबाब-ए-गुलिस्ताँ
आई न मगर ताक़त-ए-परवाज़ अभी तक
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आशियाँ जलने पे बुनियाद नई पड़ती है
कभी न हुस्न-ओ-मोहब्बत में बन सकी 'वाहिद'
का'बा-ओ-दैर-ओ-कलीसा का तजस्सुस क्यूँ हो
शख़्सिय्यत-ए-फ़नकार मुअ'म्मा नहीं 'वाहिद'
राह-ए-तलब की लाख मसाफ़त गिराँ सही
न पूछिए कि शब-ए-हिज्र हम पे क्या गुज़री
शब-ए-फ़िराक़ कई बार गोशा-ए-दिल से
जो दश्त-ए-तमन्ना में हर वक़्त भटकता है
मेरी दीवानगी-ए-इश्क़ है इक दर्स-ए-जहाँ
अँधेरों में उजाले ढूँढता हूँ
उफ़ गर्दिश-ए-हयात तिरी फ़ित्ना-साज़ियाँ
इस तरह हुस्न-ओ-मोहब्बत की करो तुम तफ़्सीर