अँधेरों में उजाले ढूँढता हूँ
ये हुस्न-ए-ज़न है या दीवाना-पन है
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शख़्सिय्यत-ए-फ़नकार मुअ'म्मा नहीं 'वाहिद'
वो और हैं किनारों पे पाते हैं जो सुकूँ
हम वो रह-रव हैं कि चलना ही है मस्लक जिन का
मैं औरों को क्या परखूँ आइना-ए-आलम में
शिद्दत-ए-शौक़ असर-ख़ेज़ है जादू की तरह
अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे
न पूछिए कि शब-ए-हिज्र हम पे क्या गुज़री
ग़ैर-मुमकिन है कि मिट जाए सनम की सूरत
आज़ाद तो बरसों से हैं अरबाब-ए-गुलिस्ताँ
दिलों में ज़ख़्म होंटों पर तबस्सुम
किस शान किस वक़ार से किस बाँकपन से हम
एक मुद्दत से इसी उलझन में हूँ