एक मुद्दत से इसी उलझन में हूँ
उन को या ख़ुद को किसे सज्दा करूँ
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आज़ाद तो बरसों से हैं अरबाब-ए-गुलिस्ताँ
ग़ैर-मुमकिन है कि मिट जाए सनम की सूरत
कोई गर्दिश हो कोई ग़म हो कोई मुश्किल हो
आशियाँ जलने पे बुनियाद नई पड़ती है
कभी न हुस्न-ओ-मोहब्बत में बन सकी 'वाहिद'
शख़्सिय्यत-ए-फ़नकार मुअ'म्मा नहीं 'वाहिद'
अँधेरों में उजाले ढूँढता हूँ
वो और हैं किनारों पे पाते हैं जो सुकूँ
न पूछिए कि शब-ए-हिज्र हम पे क्या गुज़री
क्यूँ शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-साक़ी है लबों पर
आज फिर सर-ए-मक़्तल दे के ख़ुद लहू हम ने
हक़ बात सर-ए-बज़्म भी कहने में तअम्मुल