कभी न हुस्न-ओ-मोहब्बत में बन सकी 'वाहिद'
वो अपने नाज़ में हम अपने बाँकपन में रहे
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हक़ बात सर-ए-बज़्म भी कहने में तअम्मुल
न पूछिए कि शब-ए-हिज्र हम पे क्या गुज़री
कोई हंगामा-ए-हयात नहीं
राह-रौ चुप हैं राहबर ख़ामोश
जो दश्त-ए-तमन्ना में हर वक़्त भटकता है
राह-ए-तलब की लाख मसाफ़त गिराँ सही
अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे
मेरी दीवानगी-ए-इश्क़ है इक दर्स-ए-जहाँ
बा'द तकलीफ़ के राहत है यक़ीनी 'वाहिद'
शब-ए-फ़िराक़ कई बार गोशा-ए-दिल से
का'बा-ओ-दैर-ओ-कलीसा का तजस्सुस क्यूँ हो