किस शान किस वक़ार से किस बाँकपन से हम
गुज़रे हैं आज़माइश-ए-दार-ओ-रसन से हम
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किसी को बे-सबब शोहरत नहीं मिलती है ऐ 'वाहिद'
हुजूम-ए-ग़म से मिली है हयात-ए-नौ मुझ को
कभी न हुस्न-ओ-मोहब्बत में बन सकी 'वाहिद'
ग़ैर-मुमकिन है कि मिट जाए सनम की सूरत
मैं औरों को क्या परखूँ आइना-ए-आलम में
शख़्सिय्यत-ए-फ़नकार मुअ'म्मा नहीं 'वाहिद'
उफ़ गर्दिश-ए-हयात तिरी फ़ित्ना-साज़ियाँ
ग़म भी है कैफ़ भी है सोज़ भी है साज़ भी है
गुल ग़ुंचे आफ़्ताब शफ़क़ चाँद कहकशाँ
आज फिर सर-ए-मक़्तल दे के ख़ुद लहू हम ने
अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे
न पूछिए कि शब-ए-हिज्र हम पे क्या गुज़री