बेजा है तिरी जफ़ा का शिकवा
मारा मुझ को मिरी वफ़ा ने
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ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
लबरेज़-ए-हक़ीक़त गो अफ़साना-ए-मूसा है
इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
हम ने आलम से बेवफ़ाई की
सुरूर-अफ़्ज़ा हुई आख़िर शराब आहिस्ता आहिस्ता
दोनों ने किया है मुझ को रुस्वा
वो काम मेरा नहीं जिस का नेक हो अंजाम
नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है
ऐ अहल-ए-वफ़ा ख़ाक बने काम तुम्हारा
मुझ से जो न मिलते वो कोई रात न थी
ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो