ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
अपनी भी तबीअत है बहलती ही रहेगी
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मुझ से जो न मिलते वो कोई रात न थी
ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
आज़ाद उस से हैं कि बयाबाँ ही क्यूँ न हो
मजाल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत न एक बार हुई
अभी होते अगर दुनिया में 'दाग़'-ए-देहलवी ज़िंदा
ज़माना भी मुझ से ना-मुवाफ़िक़ मैं आप भी दुश्मन-ए-सलामत
शौक़ फिर कूचा-ए-जानाँ का सताता है मुझे
कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो
मेहनत हो मुसीबत हो सितम हो तो मज़ा है
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
था क़फ़स का ख़याल दामन-गीर