आज कल लखनऊ में ऐ 'अख़्तर'
धूम है तेरी ख़ुश-बयानी की
Faiz Ahmad Faiz
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बरबाद न कर उस को ज़रा हाथ पे धर ला
इश्क़ से कुछ काम ने कुछ कू-ए-जानाँ से ग़रज़
जा बैठते हो ग़ैरों में ग़ैरत नहीं आती
बे-मुरव्वत हो बेवफ़ा हो तुम
सहे ग़म पए रफ़्तगाँ कैसे कैसे
यही तशवीश शब-ओ-रोज़ है बंगाले में
सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
कमर धोका दहन उक़्दा ग़ज़ाल आँखें परी चेहरा
लजयाई से नाज़ुक है ऐ जान बदन तेरा
अल्लाह ऐ बुतो हमें दिखलाए लखनऊ
उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का