दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं
Mohsin Naqvi
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दस्तार-ए-फ़क़ीराना इक ताज से अफ़्ज़ूँ है
अल्लाह ऐ बुतो हमें दिखलाए लखनऊ
लबालब कर दे ऐ साक़ी है ख़ाली मेरा पैमाना
लजयाई से नाज़ुक है ऐ जान बदन तेरा
'अख़्तर'-ए-ज़ार भी हो मुसहफ़-ए-रुख़ पर शैदा
हाल-ए-दिल ऐ बुतो ख़ुदा जाने
मोहब्बत से बंदा बना लीजिएगा
आज कल लखनऊ में ऐ 'अख़्तर'
गर्मियाँ शोख़ियाँ किस शान से हम देखते हैं
याद में अपने यार-ए-जानी की
बे-मुरव्वत हो बेवफ़ा हो तुम
सुन रक्खो उसे दिल का लगाना नहीं अच्छा