कमर धोका दहन उक़्दा ग़ज़ाल आँखें परी चेहरा
शिकम हीरा बदन ख़ुशबू जबीं दरिया ज़बाँ ईसा
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सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
आज कल लखनऊ में ऐ 'अख़्तर'
मुझी को वाइज़ा पंद-ओ-नसीहत
याद में अपने यार-ए-जानी की
लबालब कर दे ऐ साक़ी है ख़ाली मेरा पैमाना
'अख़्तर'-ए-ज़ार भी हो मुसहफ़-ए-रुख़ पर शैदा
बरबाद न कर उस को ज़रा हाथ पे धर ला
दिखाते हैं जो ये सनम देखते हैं
लजयाई से नाज़ुक है ऐ जान बदन तेरा
सुन रक्खो उसे दिल का लगाना नहीं अच्छा
इश्क़ से कुछ काम ने कुछ कू-ए-जानाँ से ग़रज़
चाक चाक अपना गरेबाँ न हुआ था सो हुआ