तुराब-ए-पा-ए-हसीनान-ए-लखनऊ है ये
ये ख़ाकसार है 'अख़्तर' को नक़्श-ए-पा कहिए
Ahmad Faraz
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बराए-सैर मुझ सा रिंद मय-ख़ाने में गर आए
मुझी को वाइज़ा पंद-ओ-नसीहत
जा बैठते हो ग़ैरों में ग़ैरत नहीं आती
पड़ा है पाँव में अब सिलसिला मोहब्बत का
दस्तार-ए-फ़क़ीराना इक ताज से अफ़्ज़ूँ है
इश्क़ से कुछ काम ने कुछ कू-ए-जानाँ से ग़रज़
सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
लबालब कर दे ऐ साक़ी है ख़ाली मेरा पैमाना
'अख़्तर'-ए-ज़ार भी हो मुसहफ़-ए-रुख़ पर शैदा
ग़ुंचा-ए-दिल खिले जो चाहो तुम
उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का
ऐ नसीम-ए-सहरी हम तो हवा होते हैं