उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का
दरिया का न जंगल का समा का न ज़मीं का
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गर्मियाँ शोख़ियाँ किस शान से हम देखते हैं
पड़ा है पाँव में अब सिलसिला मोहब्बत का
दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
'अख़्तर'-ए-ज़ार भी हो मुसहफ़-ए-रुख़ पर शैदा
याद में अपने यार-ए-जानी की
सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
बुतो ख़ुदा से डरो संग दिल सिवा न करो
हाल-ए-दिल ऐ बुतो ख़ुदा जाने
जा बैठते हो ग़ैरों में ग़ैरत नहीं आती
आज कल लखनऊ में ऐ 'अख़्तर'
बे-मुरव्वत हो बेवफ़ा हो तुम