याद में अपने यार-ए-जानी की
हम ने मर मर के ज़िंदगानी की
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चाक चाक अपना गरेबाँ न हुआ था सो हुआ
आज कल लखनऊ में ऐ 'अख़्तर'
'अख़्तर'-ए-ज़ार भी हो मुसहफ़-ए-रुख़ पर शैदा
सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
कभी लुत्फ़-ए-ज़बान-ए-ख़ुश-बयाँ थे
इश्क़ से कुछ काम ने कुछ कू-ए-जानाँ से ग़रज़
ज़ोहरा सुहैल शम्स ख़ुर बद्र बहा तू कौन है
मुझी को वाइज़ा पंद-ओ-नसीहत
मोहब्बत से बंदा बना लीजिएगा
लजयाई से नाज़ुक है ऐ जान बदन तेरा
सुन रक्खो उसे दिल का लगाना नहीं अच्छा