यही तशवीश शब-ओ-रोज़ है बंगाले में
लखनऊ फिर कभी दिखलाए मुक़द्दर मेरा
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जा बैठते हो ग़ैरों में ग़ैरत नहीं आती
बे-मुरव्वत हो बेवफ़ा हो तुम
लबालब कर दे ऐ साक़ी है ख़ाली मेरा पैमाना
हाल-ए-दिल ऐ बुतो ख़ुदा जाने
सहे ग़म पए रफ़्तगाँ कैसे कैसे
सुन रक्खो उसे दिल का लगाना नहीं अच्छा
दस्तार-ए-फ़क़ीराना इक ताज से अफ़्ज़ूँ है
बराए-सैर मुझ सा रिंद मय-ख़ाने में गर आए
सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
ग़ुंचा-ए-दिल खिले जो चाहो तुम
उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का