देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का
है मुताला मतला-ए-अनवार का
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छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं
कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है
तिरा लब देख हैवाँ याद आवे
वो नाज़नीं अदा में एजाज़ है सरापा
इश्क़ में सब्र-ओ-रज़ा दरकार है
अगर गुलशन तरफ़ वो नौ-ख़त-ए-रंगीं-अदा निकले
चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
ऐ नूर-ए-जान-ओ-दीदा तिरे इंतिज़ार में
हर ज़र्रा उस की चश्म में लबरेज़-ए-नूर है
फिर मेरी ख़बर लेने वो सय्याद न आया
जामा-ज़ेबों को क्यूँ तजूँ कि मुझे