रश्क सूँ तुझ लबाँ की सुर्ख़ी पर
जिगर-ए-लाला दाग़ दाग़ हुआ
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चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
इश्क़ बेताब-ए-जाँ-गुदाज़ी है
जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ
गुल हुए ग़र्क़ आब-ए-शबनम में
किशन की गोपियाँ की नईं है ये नस्ल
मुफ़्लिसी सब बहार खोती है
दिल हुआ है मिरा ख़राब-ए-सुख़न
आशिक़ के मुख पे नैन के पानी को देख तूँ
किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता
तिरा लब देख हैवाँ याद आवे
तख़्त जिस बे-ख़ानमाँ का दस्त-ए-वीरानी हुआ
ऐ नूर-ए-जान-ओ-दीदा तिरे इंतिज़ार में