जो आशिक़ हो उसे सहरा में चल जाने से क्या निस्बत
जुज़ अपनी धूल उड़ाना और वीराने से क्या निस्बत
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बहार आधी गुज़र गई हाए हम क़ैदी हैं ज़िंदाँ के
सख़्त पिस्ताँ तिरे चुभे दिल में
ख़ुदा किसी कूँ किसी साथ आश्ना न करे
मैं सहरा जा के क़ब्र-ए-हज़रत-ए-मजनूँ को देखा था
ख़ुदा शाहिद बुतो दो-जग से ये सौदा है निर्वाला
जब तन न रहा मेरा हूँ वासिल-ए-जानाना
ख़ुदा ही पहुँचे फ़रियादों को हम से बे-नसीबों के
आज दिल बे-क़रार है मेरा
तीरा-बख़्तों को करे है नाला-ए-ग़मगीं ख़राब
मेरे अश्कों की गई थी रेल वीराने पे क्या गुज़रा
गर्द-बाद अफ़्सोस का जंगल से है पैदा हनूज़
ख़त ने आ कर की है शायद रहम फ़रमाने की अर्ज़