जो हम ये तिफ़लों के संग-ए-जफ़ा के मारे हैं
बुतों का शिकवा नहीं हम ख़ुदा के मारे हैं
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तिरे लब-बिन है दिल में शोला-ज़न मुल जिस को कहते हैं
इश्क़ गोरे हुस्न का आशिक़ के दिल को दे जला
जिन दिनों हम उस शब-ए-हज़ के सियह-कारों में थे
ख़ुदा ही पहुँचे फ़रियादों को हम से बे-नसीबों के
कहा जो मैं ने गया ख़त से हाए तेरा हुस्न
वो पल में जल बुझा और ये तमाम रात जला
पीर हो शैख़ हुआ है देखो तिफ़्लों का मुरीद
असीरी बे-मज़ा लगती है बिन-सय्याद क्या कीजे
उस को पहुँची ख़बर कि जीता हूँ
ऐ सालिक इंतिज़ार-ए-हज में क्या तू हक्का-बक्का है
न शोख़ियों से करे हैं वो चश्म-ए-गुल-गूँ रक़्स
जब तन न रहा मेरा हूँ वासिल-ए-जानाना