पीर हो शैख़ हुआ है देखो तिफ़्लों का मुरीद
मुर्दा बोला है कफ़न फाड़ क़यामत आई
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जो आशिक़ हो उसे सहरा में चल जाने से क्या निस्बत
ख़ुनुक-जोशी न करते जूँ सबा गर ये बुताँ हम से
हिन्दू ओ मुस्लिमीन हैं हिर्स-ओ-हवा-परसत
उस को पहुँची ख़बर कि जीता हूँ
गर मेरे लहू रोने का बारान बनेगा
असीरी बे-मज़ा लगती है बिन-सय्याद क्या कीजे
तीरा-बख़्तों को करे है नाला-ए-ग़मगीं ख़राब
नयन में ख़ूँ भर आया दिल में ख़ार-ए-ग़म छुपा शायद
दिलों में रहिए जहाँ के वले ख़ुदा के ढब
कहा जो मैं ने गया ख़त से हाए तेरा हुस्न
मग़्ज़-ए-बहार इस बरस उस बिन बचा न था