दरिया-ए-मोहब्बत से 'मुहिब' ले ही के छोड़ी
मुझ अश्क ने आख़िर दुर-ए-नायाब की मीरास
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अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
जौन से रस्ते वो हो निकले उधर पहरों तलक
शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे है क्या कीजे
साथ ग़ैरों के है सदा गट-पट
इस ख़ानुमाँ-ख़राब को भी दे मियाँ बता
पहले सफ़-ए-उश्शाक़ में मेरा ही लहू चाट
हर आन यास बढ़नी हर दम उमीद घटनी
ग़म-ए-जाँ तू है अगर राहत-ए-जाँ है तू है
दर्स-ए-इल्म-ए-इश्क़ से वाक़िफ़ नहीं मुतलक़ फ़क़ीह
जिसे गर्म-इख़्तिलाती की लगा दे दिल में तू आतिश
काश हम नाकाम भी काम आएँ तेरे इश्क़ में
साक़ी हमें क़सम है तिरी चश्म-ए-मस्त की