सुख़न जिन के कि सूरत जूँ गुहर है बहर-ए-मअ'नी में
अबस ग़लताँ रखे है फ़िक्र उन के आब-ओ-दाने का
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हमारी चाह साहब जानते हैं
ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं
हर घड़ी वहम में गुज़रे हैं नए अख़बारात
देखता कुछ हूँ ध्यान में कुछ है
जो अज़-ख़ुद-रफ़्ता है गुमराह है वो रहनुमा मेरा
ख़त का ये जवाब आया कि क़ासिद गया जी से
हम-दिगर मोमिन को है हर बज़्म में तकफ़ीर-ए-जंग
का'बे में वही ख़ुद है वही दैर में है आप
अश्क-बारी का मिरी आँखों ने ये बाँधा है झाड़
शब न ये सर्दी से यख़-बस्ता ज़मीं हर तर्फ़ है
ग़ौर कर देखो तो ये इक तार का बिस्तार है