ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
लिया है मुँह पर अपने डाल बुर्क़ा बे-हयाई का
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हो जिस क़दर कि तुझ से ऐ पुर-जफ़ा जफ़ा कर
ख़ाना-ए-दिल का जो तवाइफ़ है
वो जो लैला है मिरे दिल में सुने उस का जो शोर
हर घड़ी वहम में गुज़रे हैं नए अख़बारात
दीं से पैदा कुफ़्र है और नूर शक्ल-ए-नार है
जो अज़-ख़ुद-रफ़्ता है गुमराह है वो रहनुमा मेरा
मेरी ख़बर न लेना ऐ यार है तअ'ज्जुब
दैर में का'बे में मयख़ाने में और मस्जिद में
का'बे में वही ख़ुद है वही दैर में है आप
न तय एक रकअत की मंज़िल हुई
मिरे दिल में हिज्र के बाब हैं तुझे अब तलक वही नाज़ है
बुलबुल बजाए अपने तुझे हम-नवा से बहस