ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समुंदरों ही के लहजे में बात करता है
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मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
तमाम उम्र बड़े सख़्त इम्तिहान में था
दुआ करो कि कोई प्यास नज़्र-ए-जाम न हो
तिरे ख़याल के हाथों कुछ ऐसा बिखरा हूँ
किसी को कैसे बताएँ ज़रूरतें अपनी
मुझे तो क़तरा ही होना बहुत सताता है
वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
वह जानते ही नहीं
मुझे पढ़ता कोई तो कैसे पढ़ता
इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे
रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते