हर एक मौसम में रौशनी सी बिखेरते हैं
तुम्हारे ग़म के चराग़ मेरी उदासियों में
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इस जुदाई में तुम अंदर से बिखर जाओगे
मुझे ख़बर थी कि अब लौट कर न आऊँगा
उदास रातों में तेज़ कॉफ़ी की तल्ख़ियों में
मुद्दतों उस की ख़्वाहिश से चलते रहे हाथ आता नहीं
जैसे हो उम्र भर का असासा ग़रीब का
समुंदर में उतरता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं
तो मैं भी ख़ुश हूँ कोई उस से जा के कह देना
कैसा मफ़्तूह सा मंज़र है कई सदियों से
आँखों में चुभ गईं तिरी यादों की किर्चियाँ
तुम मिरी आँख के तेवर न भुला पाओगे
हर इक मुफ़लिस के माथे पर अलम की दास्तानें हैं