मुद्दतों उस की ख़्वाहिश से चलते रहे हाथ आता नहीं
चाह में उस की पैरों में हैं आबले चाँद को क्या ख़बर
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मुझे ख़बर थी कि अब लौट कर न आऊँगा
हर इक मुफ़लिस के माथे पर अलम की दास्तानें हैं
कैसा मफ़्तूह सा मंज़र है कई सदियों से
इस जुदाई में तुम अंदर से बिखर जाओगे
हर एक मौसम में रौशनी सी बिखेरते हैं
समुंदर में उतरता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं
हज़ारों मौसमों की हुक्मरानी है मिरे दिल पर
उदास रातों में तेज़ कॉफ़ी की तल्ख़ियों में
कौन कहता है मुलाक़ात मिरी आज की है
तो मैं भी ख़ुश हूँ कोई उस से जा के कह देना
जैसे हो उम्र भर का असासा ग़रीब का
दुख दर्द में हमेशा निकाले तुम्हारे ख़त