वासिफ़ देहलवी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का वासिफ़ देहलवी

वासिफ़ देहलवी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का वासिफ़ देहलवी
नामवासिफ़ देहलवी
अंग्रेज़ी नामWasif Dehlvi
जन्म की तारीख1910
जन्म स्थानDelhi

ज़ुलेख़ा के वक़ार-ए-इश्क़ को सहरा से क्या निस्बत

ये तूफ़ान-ए-हवादिस और तलातुम बाद ओ बाराँ के

ये महफ़िल आज ना-अहलों से जो मामूर है 'वासिफ़'

वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे

वफ़ूर-ए-बे-ख़ुदी में रख दिया सर उन के क़दमों पर

क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए

क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना

पाँव ज़ख़्मी हुए और दूर है मंज़िल 'वासिफ़'

नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है

क्या ग़म जो हसरतों के दिए बुझ गए तमाम

कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं

किसी को याद कर के एक दिन ख़ल्वत में रोया था

ख़ुदा के सामने जो सर यक़ीं के साथ झुक जाए

जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते

हल्की सी ख़लिश दिल में निगाहों में उदासी

दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का

दामन के दाग़ अश्क-ए-नदामत ने धो दिए

बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम

भरम उस का ही ऐ मंसूर तू ने रख लिया होता

बहुत अच्छा हुआ आँसू न निकले मेरी आँखों से

आज रुख़्सत हो गया दुनिया से इक बीमार-ए-ग़म

ज़र्रा हरीफ़-ए-मेहर दरख़्शाँ है आज कल

वो जिस की जुस्तुजू-ए-दीद में पथरा गईं आँखें

वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे

वो जल्वा तूर पर जो दिखाया न जा सका

तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है

क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना

नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है

नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक

किसी के इश्क़ का ये मुस्तक़िल आज़ार क्या कहना

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