दामन के दाग़ अश्क-ए-नदामत ने धो दिए
लेकिन ये दिल का दाग़ मिटाया न जा सका
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वो जिस की जुस्तुजू-ए-दीद में पथरा गईं आँखें
ये महफ़िल आज ना-अहलों से जो मामूर है 'वासिफ़'
पाँव ज़ख़्मी हुए और दूर है मंज़िल 'वासिफ़'
किसी के इश्क़ का ये मुस्तक़िल आज़ार क्या कहना
क्या ग़म जो हसरतों के दिए बुझ गए तमाम
इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे
नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
किसी को याद कर के एक दिन ख़ल्वत में रोया था
बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम
तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है
कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं