किसी को याद कर के एक दिन ख़ल्वत में रोया था
नहीं मालूम क्यूँ जब से नदामत बढ़ती जाती है
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
Rahat Indori
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Wasi Shah
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(517) Peoples Rate This
वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
आज रुख़्सत हो गया दुनिया से इक बीमार-ए-ग़म
दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का
ख़ुदा के सामने जो सर यक़ीं के साथ झुक जाए
बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम
खुलने ही लगे उन पर असरार-ए-शबाब आख़िर
दामन के दाग़ अश्क-ए-नदामत ने धो दिए
वो जिस की जुस्तुजू-ए-दीद में पथरा गईं आँखें
कितनी घटाएँ आईं बरस कर गुज़र गईं
हम-सफ़र थम तो सही दिल को सँभालूँ तो चलूँ
बयाँ ऐ हम-नशीं ग़म की हिकायत और हो जाती
बहुत अच्छा हुआ आँसू न निकले मेरी आँखों से