क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए
सुब्ह-ए-वतन भी शाम-ए-ग़रीबाँ है आज कल
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दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का
खुलने ही लगे उन पर असरार-ए-शबाब आख़िर
बयाँ ऐ हम-नशीं ग़म की हिकायत और हो जाती
किसी के इश्क़ का ये मुस्तक़िल आज़ार क्या कहना
कभी दर्द-आश्ना तेरा भी क़ल्ब शादमाँ होगा
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
ज़ुलेख़ा के वक़ार-ए-इश्क़ को सहरा से क्या निस्बत
तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है
नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
आज रुख़्सत हो गया दुनिया से इक बीमार-ए-ग़म
ये तूफ़ान-ए-हवादिस और तलातुम बाद ओ बाराँ के