वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
चराग़ बाद-ए-फ़ना ने बुझाए हैं क्या क्या
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किसी को याद कर के एक दिन ख़ल्वत में रोया था
वो जल्वा तूर पर जो दिखाया न जा सका
क़िस्मत की तीरगी की कहानी न पूछिए
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
क्या ग़म जो हसरतों के दिए बुझ गए तमाम
जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते
नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक
किसी के इश्क़ का ये मुस्तक़िल आज़ार क्या कहना
वो जिस की जुस्तुजू-ए-दीद में पथरा गईं आँखें
अगर ख़ू-ए-तहम्मुल हो तो कोई ग़म नहीं होता
बहुत अच्छा हुआ आँसू न निकले मेरी आँखों से