ख़ुद अपने ग़म ही से की पहले दोस्ती हम ने
और उस के बा'द ग़म-ए-दोस्ताँ को पहचाना
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मुसाफ़िर चलते रहते हैं
मंज़र था राख और तबीअत उदास थी
कितनी बार बुलाया उस को
तिरा ही रूप नज़र आए जा-ब-जा मुझ को
धूप के साथ गया साथ निभाने वाला
उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना
बंद उस ने कर लिए थे घर के दरवाज़े अगर
चलो माना हमीं बे-कारवाँ हैं
अंधी काली रात का धब्बा
थी नींद मेरी मगर उस में ख़्वाब उस का था
सितारा तो कभी का जल-बुझा है
ये किस हिसाब से की तू ने रौशनी तक़्सीम