लाज़िम कहाँ कि सारा जहाँ ख़ुश-लिबास हो
मैला बदन पहन के न इतना उदास हो
Gulzar
Wasi Shah
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Faiz Ahmad Faiz
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वो दिन गए कि छुप के सर-ए-बाम आएँगे
खुली किताब थी फूलों-भरी ज़मीं मेरी
कोह-ए-निदा
करना पड़ेगा अपने ही साए में अब क़याम
थकन
ख़ुद से हुआ जुदा तो मिला मर्तबा तुझे
अलमिया
न आँखें ही झपकता है न कोई बात करता है
ये किस हिसाब से की तू ने रौशनी तक़्सीम
भूरी मिट्टी की तह को हटाएँ
तुम्हें ख़बर भी न मिली और हम शिकस्ता-हाल
उस की आवाज़ में थे सारे ख़द-ओ-ख़ाल उस के