पहना दे चाँदनी को क़बा अपने जिस्म की
उस का बदन भी तेरी तरह बे-लिबास हो
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वो अपनी उम्र को पहले पिरो लेता है डोरी में
रेज़ा रेज़ा कर जाता है
उम्र भर उस ने बेवफ़ाई की
या अब्र-ए-करम बन के बरस ख़ुश्क ज़मीं पर
या रब तिरी रहमत का तलबगार है ये भी
सफ़ेद फूल मिले शाख़-ए-सीम-बर के मुझे
करना पड़ेगा अपने ही साए में अब क़याम
ये किस हिसाब से की तू ने रौशनी तक़्सीम
कैसे कहूँ कि मैं ने कहाँ का सफ़र किया
अजनबी
सकता
ये कैसी आँख थी जो रो पड़ी है