थी नींद मेरी मगर उस में ख़्वाब उस का था
बदन मिरा था बदन में अज़ाब उस का था
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क़िस्मत ही में रौशनी नहीं थी
तिरा ही रूप नज़र आए जा-ब-जा मुझ को
ये कैसी आँख थी जो रो पड़ी है
सफ़र तवील सही हासिल-ए-सफ़र ये है
रेज़ा रेज़ा कर जाता है
दुख मैले आकाश का
सकता
बंधन
पहना दे चाँदनी को क़बा अपने जिस्म की
या अब्र-ए-करम बन के बरस ख़ुश्क ज़मीं पर
अब तो आराम करें सोचती आँखें मेरी
अलमिया