मय पी के ईद कीजिए गुज़रा मह-ए-सियाम
तस्बीह रखिए साग़र-ओ-मीना उठाइए
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जो अदू-ए-बाग़ हो बरबाद हो
नहीं है हाजियों को मय-कशी की कैफ़िय्यत
हम भी ज़रूर कहते किसी काम के लिए
हम रिंद-ए-परेशाँ हैं माह-ए-रमज़ाँ है
उन की रफ़्तार से दिल का अजब अहवाल हुआ
आशिक़ हैं हम को हर्फ़-ए-मोहब्बत से काम है
दिल-ए-पुर दाग़ बाग़ किस का है
दोनों चश्मों से मरी अश्क बहा करते हैं
दश्त-ए-जुनूँ में आ गईं आँखें जो उन की याद
जब उस बे-मेहर को ऐ जज़्ब-ए-दिल कुछ जोश आता है
हुआ धूप में भी न कम हुस्न-ए-यार
पाया है इस क़दर सुख़न-ए-सख़्त ने रिवाज