ख़ुदा जाने अजल को पहले किस पर रहम आएगा
गिरफ़्तार-ए-क़फ़स पर या गिरफ़्तार-ए-नशेमन पर
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सुब्ह-ए-अज़ल ओ शाम-ए-अबद कुछ भी नहीं
हुस्न-ए-ज़ाती भी छुपाए से कहीं छुपता है
रौशन तमाम काबा ओ बुत-ख़ाना हो गया
बे-दर्द हो क्या जानो मुसीबत के मज़े
क्यूँ किसी से वफ़ा करे कोई
मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शर्माना नहीं आता
काम दीवानों को शहरों से न बाज़ारों से
पुकारता रहा किस किस को डूबने वाला
दर्द अपना कुछ और है दवा है कुछ और
पहुँची यहाँ भी शैख़ ओ बरहमन की कश्मकश
मुफ़लिसी में मिज़ाज शाहाना