सब तिरे सिवा काफ़िर आख़िर इस का मतलब क्या
सर फिरा दे इंसाँ का ऐसा ख़ब्त-ए-मज़हब क्या
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देखे हैं बहुत चमन उजड़ते बस्ते
मुमकिन नहीं अंदेशा-ए-फ़र्दा कम हो
ज़माना ख़ुदा को ख़ुदा जानता है
कारगाह-ए-दुनिया की नेस्ती भी हस्ती है
मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जाएगा
आप से आप अयाँ शाहिद-ए-मअ'नी होगा
अगर अपनी चश्म-ए-नम पर मुझे इख़्तियार होता
चलता नहीं फ़रेब किसी उज़्र-ख़्वाह का
गुनाह गिन के मैं क्यूँ अपने दिल को छोटा करूँ
दैर ओ हरम भी ढह गए जब दिल नहीं रहा
जब हुस्न-ए-बे-मिसाल पर इतना ग़ुरूर था
दीवाना-ए-इश्क़ को नसीहत तौबा