साक़ी मैं देखता हूँ ज़मीं आसमाँ का फ़र्क़
अर्श-ए-बरीं में और तिरे आस्ताने में
Habib Jalib
Parveen Shakir
Gulzar
Jaun Eliya
Rahat Indori
Ahmad Faraz
Javed Akhtar
Wasi Shah
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(879) Peoples Rate This
वाइज़ की आँखें खुल गईं पीते ही साक़िया
साया अगर नसीब हो दीवार-ए-यार का
दर्द अपना कुछ और है दवा है कुछ और
अगर अपनी चश्म-ए-नम पर मुझे इख़्तियार होता
देखे हैं बहुत चमन उजड़ते बस्ते
मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शरमाना नहीं आता
आँख दिखलाने लगा है वो फ़ुसूँ-साज़ मुझे
अपनी हद से गुज़र गए अब क्या है
बे-धड़क पिछले पहर नाला-ओ-शेवन न करें
दीवाना-वार दौड़ के कोई लिपट न जाए
मुफ़लिसी में मिज़ाज शाहाना