दुनिया से अलग जा के कहीं सर फोड़ो
या जीते ही जी मुर्दों से नाता जोड़ो
क्यूँ ठोकरें खाने को पड़े हो बेकार
बढ़ना है बढ़ो नहीं तो रस्ता छोड़ो
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अरमान निकलने का मज़ा है कुछ और
आँख दिखलाने लगा है वो फ़ुसूँ-साज़ मुझे
वहशत थी हम थे साया-ए-दीवार-ए-यार था
यकसाँ कभी किसी की न गुज़री ज़माने में
दीवाना-ए-इश्क़ को नसीहत तौबा
दर्द अपना कुछ और है दवा है कुछ और
ग़ालिब और मीरज़ा 'यगाना' का
अगर अपनी चश्म-ए-नम पर मुझे इख़्तियार होता
मौत माँगी थी ख़ुदाई तो नहीं माँगी थी
पयाम-ए-ज़ेर-ए-लब ऐसा कि कुछ सुना न गया
क्यूँ किसी से वफ़ा करे कोई