वल्लाह ये ज़िंदगी भी है क़ाबिल-ए-दीद
इक तुर्फ़ा तिलिस्म-ए-दीद जिस की न शुनीद
मंज़िल की धुन में झूमता जाता हूँ
पीछे तो अजल है आगे आगे उम्मीद
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देखूँ कब तक गुलों की ये तिश्ना-लबी
सुब्ह-ए-अज़ल ओ शाम-ए-अबद कुछ भी नहीं
इम्तियाज़-ए-सूरत-ओ-मअ'नी से बेगाना हुआ
कशिश-ए-लखनऊ अरे तौबा
जैसे दोज़ख़ की हवा खा के अभी आया हो
मुश्किल कोई मुश्किल नहीं जीने के सिवा
रौशन तमाम काबा ओ बुत-ख़ाना हो गया
यार है आइना है शाना है
अगर अपनी चश्म-ए-नम पर मुझे इख़्तियार होता
उम्मीद-ओ-बीम ने मारा मुझे दो-राहे पर
बे-धड़क पिछले पहर नाला-ओ-शेवन न करें
मुमकिन नहीं अंदेशा-ए-फ़र्दा कम हो