बाद-ए-नफ़रत फिर मोहब्बत को ज़बाँ दरकार है
फिर अज़ीज़-ए-जाँ वही उर्दू ज़बाँ होने लगी
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मुझे भी ख़ुद न था एहसास अपने होने का
न पूछो ज़ीस्त-फ़साना तमाम होने तक
क्या हुआ हम से जो दुनिया बद-गुमाँ होने लगी
आतिश-ए-ग़म में भभूका दीदा-ए-नमनाक था
चंद घंटे शोर ओ ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़
हर नया रस्ता निकलता है जो मंज़िल के लिए
सच कहियो कि वाक़िफ़ हो मिरे हाल से 'आमिर'
न समझे अश्क-फ़िशानी को कोई मायूसी
नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं
धीरे धीरे सर में आ कर भर गया बरसों का शोर
सर के नीचे ईंट रख कर उम्र भर सोया है तू