बज़्म में यूँ तो सभी थे फिर भी 'आमिर' देर तक
तेरे जाने से रही इक ख़ामुशी चारों तरफ़
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मैं आज कल के तसव्वुर से शाद-काम तो हूँ
धीरे धीरे सर में आ कर भर गया बरसों का शोर
इक ख़ला सा है जिधर देखो इधर कुछ भी नहीं
अगरचे हाल ओ हवादिस की हुक्मरानी है
चंद घंटे शोर ओ ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़
न पूछो ज़ीस्त-फ़साना तमाम होने तक
सच कहियो कि वाक़िफ़ हो मिरे हाल से 'आमिर'
आतिश-ए-ग़म में भभूका दीदा-ए-नमनाक था
मुझे भी ख़ुद न था एहसास अपने होने का
नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं
हर नया रस्ता निकलता है जो मंज़िल के लिए