धीरे धीरे सर में आ कर भर गया बरसों का शोर
रफ़्ता रफ़्ता आरज़ू-ए-दिल धुआँ होने लगी
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सच कहियो कि वाक़िफ़ हो मिरे हाल से 'आमिर'
बज़्म में यूँ तो सभी थे फिर भी 'आमिर' देर तक
आतिश-ए-ग़म में भभूका दीदा-ए-नमनाक था
न पूछो ज़ीस्त-फ़साना तमाम होने तक
नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं
इक ख़ला सा है जिधर देखो इधर कुछ भी नहीं
मैं आज कल के तसव्वुर से शाद-काम तो हूँ
अगरचे हाल ओ हवादिस की हुक्मरानी है
चैन ही कब लेने देता था किसी का ग़म हमें
चंद घंटे शोर ओ ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़
सर के नीचे ईंट रख कर उम्र भर सोया है तू