ख़ुद पे इल्ज़ाम क्यूँ धरो बाबा
ज़िंदगी मौत है मरो बाबा
रेत ख़्वाबों की हो कि दर्द के फूल
अपनी झोली में कुछ भरो बाबा
ख़ौफ़ की धुँद घेर लेगी तुम्हें
क्या ज़रूरी है तुम डरो बाबा
जंग जब उन से लाज़मी ठहरे
उन से फिर जंग ही करो बाबा
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कोई बे-नाम ख़लिश उकसाए
दर्द उस का उभर रहा होगा
मुशाहिदा न कोई तजरबा न ख़्वाब कोई
जागे ज़मीर ज़ेहन खुले ताज़गी मिले
हवा-ए-सुब्ह-ए-नुमू दुश्मन-ए-चमन कैसे
कोई बादल तपिश-ए-ग़म से पिघलता ही नहीं
ख़ून की एक नदी और बहेगी शायद
सुर्ख़ लावे की तरह तप के निखरना सीखो
ज़िंदगी दश्त-ए-बला हो जैसे