ख़ून की एक नदी और बहेगी शायद
जंग जारी है तो जारी ही रहेगी शायद
हाकिम-ए-वक़्त से बेज़ार ये जागी मख़्लूक़
जब्र-ओ-बेदाद को अब के न सहेगी शायद
बढ़ के इस धुँद से टकराती हुई तेज़ हुआ
तेरे मिलने की कोई बात कहेगी शायद
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हवा-ए-सुब्ह-ए-नुमू दुश्मन-ए-चमन कैसे
कोई बे-नाम ख़लिश उकसाए
ज़िंदगी दश्त-ए-बला हो जैसे
ख़ुद पे इल्ज़ाम क्यूँ धरो बाबा
जागे ज़मीर ज़ेहन खुले ताज़गी मिले
दर्द उस का उभर रहा होगा
कोई बादल तपिश-ए-ग़म से पिघलता ही नहीं
मुशाहिदा न कोई तजरबा न ख़्वाब कोई
सुर्ख़ लावे की तरह तप के निखरना सीखो