कोई बादल तपिश-ए-ग़म से पिघलता ही नहीं
और दिल है कि किसी तरह बहलता ही नहीं
सब यहाँ बैठे हैं ठिठुरे हुए जम्मू को लिए
धूप की खोज में अब कोई निकलता ही नहीं
सिर्फ़ इक मैं हूँ जो हर रोज़ नया लगता हूँ
वर्ना इस शहर में तो कोई बदलता ही नहीं
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दर्द उस का उभर रहा होगा
मुशाहिदा न कोई तजरबा न ख़्वाब कोई
कोई बे-नाम ख़लिश उकसाए
हवा-ए-सुब्ह-ए-नुमू दुश्मन-ए-चमन कैसे
ख़ुद पे इल्ज़ाम क्यूँ धरो बाबा
जागे ज़मीर ज़ेहन खुले ताज़गी मिले
ज़िंदगी दश्त-ए-बला हो जैसे
ख़ून की एक नदी और बहेगी शायद
सुर्ख़ लावे की तरह तप के निखरना सीखो