कोई बे-नाम ख़लिश उकसाए
क्या ज़रूरी है तिरी याद आए
तेरी आँखों के बुलावे की किरन
क्यूँ मिरी राहगुज़र बन जाए
ज़िंदगी दश्त-ए-सफ़र धूप ही धूप
तेरे बिन कैसे कहाँ के साए
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जागे ज़मीर ज़ेहन खुले ताज़गी मिले
ख़ुद पे इल्ज़ाम क्यूँ धरो बाबा
कोई बादल तपिश-ए-ग़म से पिघलता ही नहीं
सुर्ख़ लावे की तरह तप के निखरना सीखो
हवा-ए-सुब्ह-ए-नुमू दुश्मन-ए-चमन कैसे
ज़िंदगी दश्त-ए-बला हो जैसे
मुशाहिदा न कोई तजरबा न ख़्वाब कोई
ख़ून की एक नदी और बहेगी शायद
दर्द उस का उभर रहा होगा