ख़ुद अपना साथ भी चुभने लगा था
अजब तन्हाई की आदत हुई थी
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आते रहते हैं फ़लक से भी इशारे कुछ न कुछ
किसी ख़सारे के सौदे में हाथ आया था
किसी कशिश के किसी सिलसिले का होना था
जाती थी कोई राह अकेली किसी जानिब
मैं घर से जाऊँ तो ताला लगा के जाती हूँ
कैसे हों ख़्वाब आँख में कैसा ख़याल दिल में हो
किसी के साथ किया निस्बत हुई थी
जो चला गया सो चला गया जो है पास उस का ख़याल रख
किस की आँखों को नींद चुभती है
मुझ को उतार हर्फ़ में जान-ए-ग़ज़ल बना मुझे
इक दिल में था इक सामने दरिया उसे कहना